Monday, July 20, 2015

राष्ट्रीय उत्सवों का पुनरुद्धार – संस्कृति के व्यावसायीकरण का प्रतिकार

राष्ट्रीय उत्सवों का पुनरुद्धार – संस्कृति के व्यावसायीकरण का प्रतिकार

guru-purnimaवैदिक काल से लेकर समकालीन इतिहास तक, हमें ऐसे महान संत और विद्वान मिलते हैं, जो हमें यह तथ्य विस्तारपूर्वक बताते हैं कि कैसे और क्यों यह एक राष्ट्र है. लेकिन वर्ष 1947 को स्वतंत्रता दिवस पर अपने पहले भाषण में, पं. नेहरू ने कहा कि इंडिया दैट इज भारत एक बनता हुआ राष्ट्र है. इससे उनका आशय यह था कि हम अतीत में एक राष्ट्र नहीं रहे थे. तब से अब तक नीति यही रही है. श्री अरबिंदो और श्री राधा कुमुद मुखर्जी जैसे नेहरू के स्वयं के समकालीनों ने इतिहास से व्यापक उद्धरण देते हुए हमारे राष्ट्रीय लोकाचार के बारे में विस्तार से लिखा है.
दुर्भाग्यवश, नीति उन लोगों द्वारा निर्धारित की जाती है, जिनके हाथों में शक्ति होती है. अपने स्वयं के सिद्धांत को आगे बढ़ाने के लिए, पं. नेहरू और उनके बाद की कांग्रेस सरकारों ने शिक्षित लोगों के मन से देसी ऐतिहासिक स्मृतियों को चुनौती देने और मिटाने के लिए सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल किया. उन्हें लगा कि ऐसा करना यह दिखाने के लिए जरूरी था कि भारत की संस्कृति हिन्दू नहीं, बल्कि मिश्रित संस्कृति थी. इस प्रकार उन्होंने मैकाले की यह योजना अपनाई कि “एक ऐसा वर्ग तैयार किया जाए, जो रक्त और रंग से भारतीय हो, लेकिन आचार, विचार और बुद्धि से ब्रिटिश हो.” इस दिशा में एक प्रयास ऐसे “दिवस और जन्मदिन” मनाकर किया गया, जो या तो हाल के इतिहास से संबंधित हों, या पश्चिमी लोकाचार के विचारों के इर्दगिर्द केंद्रित हो. इससे आशय हिंदुओं के अपने अतीत के साथ सांस्कृतिक संबंधों का निरसन करना था. इन विचारों को अंग्रेजी मीडिया के एक बड़े वर्ग द्वारा और व्यापक पैमाने पर विज्ञापन के जरिए प्रचारित किया गया.
संस्कृति का व्यावसायीकरण -
आधुनिकता के नाम पर किस चीज को बढ़ावा दिया जा रहा है और कैसे संस्कृति का व्यावसायीकरण किया जा रहा है, इस पर एक सरसरी नजर-
- पिछले कुछ वर्षों से “वैलेंटाइन्स डे” ​​लोकप्रिय कराने के लिए मानो अंधाधुंध बमबारी की जा रही है. आज यह भारत में 1500 करोड़ रुपए का कारोबार है. इसमें रिश्तों में दरार पैदा करने की क्षमता है और यह प्रेम की अवधारणा को बाजार बना रहा है. सिंगल पेरेन्ट्स डे, गे एंड लेस्बियन डे जैसी घटनाओं को भी धीरे-धीरे प्रोत्साहित किया जा रहा है.
- 01 जनवरी को नव वर्ष के रूप में मनाना. 01 जनवरी एक रोमन परंपरा थी, जिसे बाद में उस दिन के तौर पर प्रचारित और स्थापित किया गया, जिस दिन यीशु का खतना किया गया माना जाता है. एसोसिएटेड चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (एसोचैम) द्वारा भारत के प्रमुख शहरों में कराए गए एक सर्वेक्षण में कहा गया है कि पिछले 10 वर्षों में किशोरों के बीच 01 जनवरी (न्यू इयर्स ईव) पर शराब की खपत में 100% की वृद्धि हुई है. ऐसे में यह आश्चर्य की बात नहीं है कि शराब कंपनियां इसे जिंदा बनाए रखने के लिए भारी निवेश कर रही हैं.
जब हम किसी ऐसी घटना का जश्न मनाते हैं, जिसकी जड़ें हिंदू लोकाचार में निहित हों, तो उसके उत्सव का प्रकार उन घटनाओं के जश्न से बहुत अलग होता है, जिनकी जड़ें पश्चिम में हैं. हिंदू नव वर्ष का उत्सव मनाने और न्यू इयर्स डे मनाने में एक स्पष्ट भिन्नता दिखती है.
- किसी युवा महिला को “बहनजी” कहकर पुकारना शहरी क्षेत्रों में अपमानजनक माना जाता है, और धीरे-धीरे रक्षाबंधन, जो कि एकजुटता का एक सामाजिक त्यौहार है और जो सामाजिक सुरक्षा के लिए एक गारंटी का त्यौहार है, अब केवल परिवार के नजदीकी सदस्यों के बीच सीमित कर दिया गया है. अब इसका स्थान “फ्रैंडशिप डे” ​​और फ्रैंडशिप बैंड ने ले लिया है. यह सामाजिक रूप से प्रासंगिक त्यौहार को व्यावसायीकरण द्वारा हथियाए जाने का एक और उदाहरण है.
व्यास पूर्णिमा और गुरु पूजा उत्सव:
निरंकुश उदारवाद के चार्वाक जैसे विचार हमारे देश के लिए नए नहीं हैं. लेकिन हमारे ऋषियों ने यह सुनिश्चित करने की विधि तैयार की कि लोग धार्मिक मूल्यों से जुड़े रहें. उन्हें त्यौहारों को महान घटनाओं और महान लोगों के साथ जोड़ने का महत्व पता था. हम किसी घटना का जश्न क्यों और कैसे मनाते हैं, इसका हमारे मानस पर जबरदस्त प्रभाव पड़ता है.
गुरु का सम्मान करने की प्रथा हमारे देश में हजारों वर्षों से रही है. गुरु परम्परा के पुनर्स्मरण से  इस देश के युवा हमारे संतों के अतीत और पुरातन ज्ञान से जुड़ते हैं. व्यास, चाणक्य, शंकर, समर्थ रामदास, विद्यारण्य और इस तरह के हमारे अनेक अन्य महान गुरुओं के जीवन से मौलिक चिंतन, नवाचार और त्याग, वीरता, करुणा जैसे मूल्यों को आत्मसात किया जाता है. दुर्भाग्यवश, व्यास पूर्णिमा मनाना और हमारे गुरुओं के योगदान को स्वीकार करना एक धार्मिक गतिविधि मान लिया गया और उसके स्थान पर हम आधुनिक भारत में शिक्षक दिवस मनाते हैं, जो मात्र भौतिक तौर पर मनाया जाता है और जीवन के आध्यात्मिक तत्वों की अनदेखी करता है.
हमारा राष्ट्र धर्म के सिद्धांतों पर चलता है. गुरु पूजा जैसे “उत्सवों” को मनाना धर्म के सिद्धांतों की रक्षा करना है, जो पीढ़ियों को धर्म और बड़प्पन का जीवन जीने के लिए प्रेरित करती है. राष्ट्र की शांति, सद्भाव और समग्र प्रगति की यही एकमात्र गारंटी है.


आयुष नदिमपल्ली

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